भारत के आवाजों के बीच जब भी खेल जगत और खेल दुनिया का जिक्र होगा तो सचिन तेंदुलकर और मेजर ध्यानचंद का नाम सब से अग्रिम पंक्ति में लिखा जाएगा।
एक तरफ जहां सचिन तेंदुलकर को क्रिकेट का भगवान कहा जाता है वही मेजर ध्यानचंद को हॉकी का जादूगर कहा जाता है। लेकिन भगवान और जादूगर बनने का संघर्ष बहुत ही कठनीय दयनीय और प्रशंसनीय है।
Dhyan Chand के खेल के तकनीक इतनी जबरदस्त थी कि हॉलैंड में लोगों ने उनकी हॉकी स्टिक तुड़वा कर देखी कि कहीं उसमें चुंबक तो नहीं लगा है।
ध्यानचंद को हॉकी से इतनी मोहब्बत थी कि एकबार 1936 के ओलंपिक खेल शुरू होने से पहले एक अभ्यास मैच में भारतीय टीम जर्मनी से 4-1 से हार गई। फिर उसके बाद ध्यानचंद पर क्या बिता। इसे उन्होंने अपनी आत्मकथा ‘गोल’ में लिखा हैं।
“मैं अपनी पूरी जिंदगी में इस हार को कभी नहीं भूलूंगा। इस हार ने हमें इतना हिला कर रख दिया कि हम पूरी रात सो नहीं पाए। हमने सोच लिया कि इनसाइड राइट पर खेलने के लिए आईएनएस दारा को तुरंत भारत से हवाई जहाज़ से बर्लिन बुलाया जाए।”

14 अगस्त 1936 जर्मनी के खिलाफ मैच हो रहा था। तभी तत्कालीन मैनेजर पंकज गुप्ता ने अचानक कांग्रेस का झंडा निकाला। उसे सभी खिलाड़ियों ने सेल्यूट किया। उस वक्त भारत गुलाम था इसलिए उनके पास अपना झंडा नहीं था।
इस मैच को देखने 40000 लोग आए हुए थे। जिसमें बड़ौदा के महाराजा और भोपाल की बेगम के साथ साथ जर्मन नेतृत्व के चोटी के लोग मौजूद थे। इस मैच में ध्यानचंद ने अपनी मोजे और जूते उतार कर के लेते हैं। फिर गोलों की झड़ी लग गई।
भारत ने जर्मनी को 8-1 से हराया और इसमें तीन गोल ध्यान चंद ने किए। एक अख़बार मॉर्निंग पोस्ट ने लिखा, “बर्लिन लंबे समय तक भारतीय टीम को याद रखेगा और याद रखा जाएगा ध्यानचंद के खेल को।
ध्यानचंद के खेल से हिटलर इतने प्रभावित हुए थे कि उन्होंने फटे जूतों की तरफ इशारा करते हुए ध्यानचंद को अच्छी नौकरी देने का लालच दिया और उनसे जर्मनी की टीम में खेलने के लिया कहा। लेकिन ध्यानचंद ने जर्मनी के तानाशाह हिटलर को साफ़ इंकार कर दिया।