मजरूह सुल्तानपुरी के चुनिंदा शेर
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर, लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया!
ऐसे हँस हँस के न देखा करो सब की जानिब, लोग ऐसी ही अदाओं पे फ़िदा होते हैं!
कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा!
शब-ए-इंतिज़ार की कश्मकश में न पूछ कैसे सहर हुई, कभी इक चराग़ जला दिया कभी इक चराग़ बुझा दिया!
बहाने और भी होते जो ज़िंदगी के लिए, हम एक बार तिरी आरज़ू भी खो देते!
जफ़ा के ज़िक्र पे तुम क्यूँ सँभल के बैठ गए, तुम्हारी बात नहीं बात है ज़माने की!
ग़म-ए-हयात ने आवारा कर दिया वर्ना, थी आरज़ू कि तिरे दर पे सुब्ह ओ शाम करें!
अलग बैठे थे फिर भी आँख साक़ी की पड़ी हम पर, अगर है तिश्नगी कामिल तो पैमाने भी आएँगे!
हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़ियादा, चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़ियादा!
मुझे ये फ़िक्र सब की प्यास अपनी प्यास है साक़ी, तुझे ये ज़िद कि ख़ाली है मिरा पैमाना बरसों से!
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