पढ़ें मीर तक़ी मीर के इश्क़िया शेर
आग थे इब्तिदा-ए-इश्क़ में हम, अब जो हैं ख़ाक इंतिहा है ये!
दिखाई दिए यूँ कि बे-ख़ुद किया, हमें आप से भी जुदा कर चले!
इश्क़ इक 'मीर' भारी पत्थर है, कब ये तुझ ना-तवाँ से उठता है!
मेरे सलीक़े से मेरी निभी मोहब्बत में, तमाम उम्र मैं नाकामियों से काम लिया!
नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए, पंखुड़ी इक गुलाब की सी है!
याद उस की इतनी ख़ूब नहीं 'मीर' बाज़ आ, नादान फिर वो जी से भुलाया न जाएगा!
"इश्क़ करते हैं उस परी-रू से, 'मीर' साहब भी क्या दिवाने हैं!
इश्क़ का घर है 'मीर' से आबाद, ऐसे फिर ख़ानमाँ-ख़राब कहाँ!
इश्क़ में जी को सब्र ओ ताब कहाँ, उस से आँखें लड़ीं तो ख़्वाब कहाँ!
इश्क़ से जा नहीं कोई ख़ाली, दिल से ले अर्श तक भरा है इश्क़!
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