हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पर दम निकले, बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले!

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जी ढूँडता है फिर वही फ़ुर्सत कि रात दिन, बैठे रहें तसव्वुर–ए–जानाँ किए हुए!

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अर्ज़–ए–नियाज़–ए–इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा, जिस दिल पे नाज़ था मुझे वो दिल नहीं रहा!

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इस सादगी पे कौन न मर जाए ऐ ख़ुदा, लड़ते हैं और हाथ में तलवार भी नहीं!

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भीगी हुई सी रात में जब याद जल उठी, बादल सा इक निचोड़ के सिरहाने रख लिया!

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हम जो सबका दिल रखते हैं, सुनो, हम भी एक दिल रखते हैं!

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ज़िन्दग़ी में तो सभी प्यार किया करते हैं, मैं तो मर कर भी मेरी जान तुझे चाहूँगा!

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दिल–ए–नादाँ तुझे हुआ क्या है? आख़िर इस दर्द की दवा क्या है!

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उस पे आती है मोहब्बत ऐसे, झूठ पे जैसे यकीन आता है!

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गुज़रे हुए लम्हों को मैं इक बार तो जी लूँ, कुछ ख्वाब तेरी याद दिलाने के लिए हैं !

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