हिंदू धर्म में मृत्युपरांत होने वाले दसवां और तेरहवीं का महत्व
हिंदू धर्म में जन्म से लेकर मृत्यु तक सोलह संस्कार किए जाते है. इनमें से अंतिम संस्कार को आखरी संस्कार कहते है जो मृत्युपरांत होता है. गरुण पुराण के अनुसार जिस भी मनुष्य का अंतिम संस्कार नहीं होता है वह मृत्यु के बाद प्रेत बनकर रह जाता है, और तरह तरह के कष्ट भोगता है. हिंदू धर्म के अनुसार किसी भी मृत व्यक्ति का देह संस्कार सूर्यास्त से पूर्व ही करना होता है. सूर्यास्त से अगले दिन के सूर्योदय के बीच कोई भी देह संस्कार नहीं होता है. यदि ऐसा किया जाए तो मृत व्यक्ति के शरीर की आत्मा को अगले जन्म में किसी कष्ट से और विकलांगता से जूझना पड़ता है.
मृत्युपरांत होने वाले संस्कार
दाह संस्कार के बाद तीसरा मनाते हैं, जिसे उठावना भी कहा जाता हैं. इसके बाद 10वें दिन मुंडन करा कर शांतिकर्म किया जाता है, जिसे दसवां संस्कार कहा जाता है. 12वें दिन पिंडदान आदि कर्म करते हैं. तेरहवें दिन मृत्युभोज देते हैं. इसके बाद सवा महीने का कर्म होता है, फिर बरसी मनाई जाती और मृतक को श्राद्ध में शामिल कर उसकी तिथि पर श्राद्ध मनाते हैं. इससे मुक्ति पाई जाने के लिए तीन वर्ष के बाद गया में जाकर पिंडदान किया जाता है
मान्यता है कि मृतक की आत्मा बारह दिनों का सफर तय करके विभिन्न योगियों को पार करके गंतव्य (प्रभुधम) तक पहुंचती हैं.
इसीलिए 13वीं करने का विधान बना है. किन्तु कहीं-कहीं समय के अभाव व अन्य कारणों से 13वीं तीसरे या 12वें दिन भी की जाती है जिसमें मृतक के पसंदीदा खाद्य पदार्थ बनाकर ब्रह्म भोज आयोजित कर ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देनी चाहिए और मृतक की आत्मा की शांति की प्रार्थना भी करनी चाहिए व गरीबों को मृतक के वस्त्र आदि दान किए जाते हैं. प्रत्येक माह पिंड दान करते हुए मृतक को चावल पानी का अर्पण किया जाता है.
यह श्राद्ध 13वें दिन ही करना चाहिए. अलग अलग वर्णों के हिसाब से लोकव्यवहार में यही श्राद्ध अलग अलग दिनों को किया जाता है. किन्तु गरुण पुराण के मुताबिक तेरहवीं तेरहवें दिन ही करना चाहिए. अनन्तादि चतुर्दश देवों का कुश चट में आवाहन पूजन करना इस श्राद्ध में आवश्यक होता है. इसके उपरांत ललितादि 13 देवियों का पूजन ताम्र कलश में जल के अंदर किया जाता है. यह करने के बाद सुतर को कलश से बांध दें. और कलश के चारों ओर कुमकुम से 13 बार तिलक लगाएं. इन सभी क्रियाओं को करने के बाद अपसव्य होकर चट के ऊपर पितृ का आवहनादि कर पूजन करना आवश्यक होता है.
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