जैन धर्म और हस्तिनापुर से जुड़ा है रक्षाबंधन का इतिहास, जानें कितना प्राचीन है यह त्योहार

 
जैन धर्म और हस्तिनापुर से जुड़ा है रक्षाबंधन का इतिहास, जानें कितना प्राचीन है यह त्योहार

रक्षाबंधन का त्योहार भारतीय संस्कृति और हिन्दू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है और इसे मनाने के कई कारण हैं। इसी तरह जैन धर्म में भी इस पर्व को बड़ी आस्था और उत्साह का प्रतीक माना जाता है। हस्तिनापुर की पावन भूमि पर यह पर्व सामाजिक ही नहीं आध्यात्मिक भी है। जैन धर्म में रक्षाबंधन की उत्पत्ति हस्तिनापुर की पवित्र भूमि से हुई है।

शास्त्रों और पुराणों में है रक्षाबंधन का वर्णन

जैन धर्म और हस्तिनापुर से जुड़ा है रक्षाबंधन का इतिहास, जानें कितना प्राचीन है यह त्योहार
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स्कंद पुराण, पद्म पुराण और श्रीमद्भागवत में वामन अवतार नामक कथा में रक्षाबंधन का वर्णन मिलता है। महाभारत में रक्षाबंधन से संबंधित कृष्ण और द्रौपदी का भी वर्णन मिलता है। जैन धर्म में रक्षा बंधन का इतिहास हस्तिनापुर की भूमि से जुड़ा हुआ है।

रक्षाबंधन का जैन धर्म में महत्व

जैन धर्म और हस्तिनापुर से जुड़ा है रक्षाबंधन का इतिहास, जानें कितना प्राचीन है यह त्योहार
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पौराणिक काल में सात सौ ऋषियों की संगति अकंपनाचार्य के दर्शन करते हुए हस्तिनापुर पहुंची थी। ऋषियों की साधना करते हुए राजा बलि ने उनके चारों ओर अग्नि प्रज्ज्वलित की। ऋषि अग्नि की तपन से तड़पने लगे, लेकिन ऋषियों ने धैर्य नहीं छोड़ा। कष्ट दूर होने तक ऋषियों ने अन्न और जल का त्याग कर दिया। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा यानि रक्षाबंधन के दिन वामन के वेश में मुनिराज विष्णु कुमार ने राजा बलि से भिक्षा में तीन फीट पृथ्वी मांगी और तीन चरणों में पूरी दुनिया को नापकर उन ऋषियों की रक्षा की और राजा बलि को देश से निकाल दिया। जैन समाज इस पर्व को एक दूसरे की रक्षा के लिए मनाता है।

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रक्षा सूत्र बांधकर रक्षा का संकल्प लेते हैं अनुयायी

जैन धर्म के अनुयायी इसे बड़ी आस्था और उत्साह के साथ मनाते हैं। इस दिन ऋषि-मुनियों ने प्राचीन मंदिर में जाकर विष्णु कुमार और सात सौ ऋषियों की पूजा कर उनका पाठ किया और फिर एक-दूसरे की रक्षा का संकल्प लेकर एक-दूसरे को रक्षा सूत्र बांधते हैं।

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