अतिथि देवो भवः का सनातन धर्म में क्या महत्व है ?

 
अतिथि देवो भवः का सनातन धर्म में क्या महत्व है ?

अतिथि देवो भवः का सनातन धर्म में एक विशेष महत्व है। वेदों के अनुसार अतिथि देवतास्वरूप होता है। जिसका मान सम्मान हमारी संस्कृति को दर्शाता है। वेदों और पुराणों में अतिथि को देव-देवी स्वरूप माना गया है। महाभारत के वनपर्व में अतिथि सेवा के महत्व को कुछ इस प्रकार समझया गया कि जो व्यक्ति अतिथि को देवता स्वरूप पूजता है उसके चरण धोने के लिए जल, पैरों की मालिश के लिए तेल, प्रकाश के लिए दीपक, भोजन के लिए अन्न और रहने के लिए स्थान देते हैं, वह जीवन में कभी दुःखी नहीं देखते।

अतिथि को देवो भवः आखिर कहते क्यों हैं ?

अतिथि देवो भवः संस्कृत का शब्द है। हर देश और विदेश में इस शब्द को अलग-अलग नाम से बोला जाता है। जैसे ऊर्दू में मेहमान, अंग्रेजी में गेस्ट, हिन्दी में अभ्यागत आदि।
किसी भी व्यक्ति चाहें वो किसी भी रूप में हो यदि वह आपके द्वार पर आकर रुकता है। और आप उसका आदर सम्मान करते हो उसे देवो के समान प्रसन्न करते हो तो यह आपकी संस्कृति और संस्कार को दर्शाता है। कोई ऋषि, मुनि, संन्यासी, संत, ब्राह्मण, धर्म प्रचारक आदि आपके द्वार पर आकर रुकता है। और आप उसकी इच्छा पूर्ति करते हो तो यह बहुत बड़ा पुण्य माना जाता है। वेदों में कहा गया है स्वयं भगवान या देवता किसी ब्राह्मण, भिक्षु, संन्यासी आदि का वेष धारण करके भी सकते हैं। तभी से यह धारणा चली आ रही है कि अतिथि देवों भव:। लेकिन सिर्फ ऐसा नहीं है संन्यासी को अतिथि मानने के कारण यह धारणा है। प्राचीन समय में ब्रह्म ज्ञान' प्राप्त करने के लिए लोग ब्राह्मण बनकर जंगल में रहने चले जाते थे। उनको संन्यासी या साधु भी कहते थे। कहावत है कि एक ऋषि का पद प्राप्त करना बहुत ही कठिन होता है।

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वेदानुसार पंच अतिथि यज्ञ की कहानी

वेदानुसार पंच यज्ञ में अतिथि यज्ञ भी शामिल है। गृहस्थ जीवन में रहकर पंच यज्ञों का पालन करना बहुत ही जरूरी बताया गया है। कुल पंच युग होते है - ब्रह्मयज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ।
अतिथि यज्ञ को सम्मान करने वाला व्यक्ति पुण्य का भागी कहा जाता है। कहा जाता है घर आए अतिथि, याचक तथा पशु-पक्षियों की उचित सेवा-सत्कार करने से जहां अतिथि यज्ञ संपन्न होता हैं वहीं जीव ऋण भी उतर जाता है। द्वार पर आये किसी भी व्यक्ति,पशु,पक्षि आदि की सेवा-सहायता करना ही अतिथि यज्ञ है। यह सामाजिक कर्तव्य के साथ-साथ पुण्य भी है।

इतिहास से जुड़ी अतिथि की कहानी

हमारी संस्कृति कहती है कि अतिथि का मान बढ़ाने वाले गौरव पाते है। भगवान श्री कृष्ण के द्वार आये उनके अतिथि सुदामा से मिलने उनका सत्कार करने प्रभु नंगे पांव उनके दर्शन के लिए पहुँचते है। भगवान होकर भी अपने द्वार आये अतिथि के सम्मान में कोई कसर नही छोड़ते। सुदामा के पैरों को अपने हाथ से धोकर कृष्ण अपनी महानता दिखाते है। अतिथि भाव का भूखा होता है। जैसे प्रभु श्री राम की सेवा में शबरी के जूठे बेर राम प्रेम भाव से खाते हैं। बेर की मिठास जानने के लिए शबरी अनजाने में जूठे बेर ही राम को खिलाकर धन्य होती है। यह अतिथि का कर्तव्य है की बिना किसी हीन भाव के वह अपने कार्य करता है।
आप सभी से अनुरोध है कि अपने द्वार पर आए किसी भी अतिथि का कभी अनादर ना करें।

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