Chhath Puja 2024: जानें छठ महापर्व की शुरुआत और मुंगेर का ऐतिहासिक महत्व
Chhath Puja 2024: त्योहार मुख्य रूप से बिहार में मनाया जाता है और इसे लोक आस्था का महापर्व माना जाता है। यह पर्व इतना महत्वपूर्ण है कि विदेश में रह रहे लोग भी इस अवसर पर अपने घर लौट आते हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि छठ पूजा की शुरुआत कब और कहां से हुई थी? छठ महापर्व की शुरुआत बिहार के मुंगेर से हुई थी, जहां माता सीता ने पहली बार उत्तरवाहिनी गंगा के तट पर एक छोटे पर्वत पर छठ पूजन किया था।
मुंगेर में छठ पूजा का महत्व
लोक कथाओं और धार्मिक मान्यताओं के अनुसार, छठ पूजा की शुरुआत मुंगेर में हुई थी। आनंद रामायण के अनुसार, मुंगेर जिले के बबुआ गंगा घाट से दो किलोमीटर दूर गंगा के बीच स्थित पर्वत पर ऋषि मुद्गल के आश्रम में मां सीता ने पहली बार छठ पूजा की थी। इस स्थान को वर्तमान में 'सीता चरण मंदिर' के नाम से जाना जाता है। यही से अंग और मिथिला सहित पूरे देश में छठ व्रत मनाने की परंपरा शुरू हुई।
मुंगेर के सीता चरण मंदिर का इतिहास
Chhath Puja 2024: रामायण काल में मुंगेर की गंगा नदी के तट पर मां सीता ने छठ व्रत किया था। इस स्थान पर स्थित मंदिर में आज भी मां सीता के चरणों के पदचिह्न और सूप के निशान एक विशाल पत्थर पर मौजूद हैं। यह पत्थर 250 मीटर लंबा और 30 मीटर चौड़ा है। मंदिर को 'सीता चरण मंदिर' के नाम से जाना जाता है।
माना जाता है कि जब भगवान राम 14 वर्षों का वनवास समाप्त कर अयोध्या लौटे थे, तब उन पर ब्राह्मण हत्या का पाप लगा था, क्योंकि रावण ब्राह्मण कुल से आते थे। इस पाप से मुक्ति पाने के लिए ऋषियों ने भगवान राम को राजसूय यज्ञ करने की सलाह दी थी। इसी कारण भगवान राम ने मुद्गल ऋषि को आमंत्रित किया, लेकिन उन्होंने राम और सीता को अपने आश्रम बुलाकर मुंगेर में ब्रह्म हत्या मुक्ति यज्ञ करवाया।
सूरज की उपासना और छठ पूजा
यज्ञ में महिलाओं का भाग लेना मना था, इसलिए मुद्गल ऋषि ने माता सीता को सूरज की उपासना करने का निर्देश दिया। इसी स्थान पर मां सीता ने छह दिनों तक रहकर छठ पूजा की थी। आनंद रामायण में इस घटना का वर्णन किया गया है और मंदिर में मौजूद पदचिह्न इसी पूजा का प्रमाण माने जाते हैं।
दूर-दूर से आते हैं श्रद्धालु
सीता चरण मंदिर में हर साल छठ पूजा के लिए दूर-दूर से श्रद्धालु आते हैं। मान्यता है कि इस पवित्र स्थान पर छठ व्रत करने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। मंदिर का गर्भगृह साल में छह महीने तक गंगा के गर्भ में डूबा रहता है, जिससे इसका धार्मिक महत्व और भी बढ़ जाता है। यह मंदिर 1974 में बनकर तैयार हुआ था और यहां अब भी छठ व्रत की परंपरा धूमधाम से निभाई जाती है।