अशराफ बनाम पसमांदा’- जातिगत भेदभाव से जूझ रहे मुस्लिमों की बात क्यों नहीं होती है?
वरिष्ठ पत्रकार फैयाज अहमद फैजी के अनुसार मुस्लिम समाज कभी भी एक इकाई नहीं रहा है।
अशराफ जो बाहर से आए हुए अरबी, ईरानी, तुर्की, सैयद, शेख, मुगल, मिर्जा, पठान आदि जातियां आती है जो शासक रहीं हैं। वहीं जिल्फ जिसमें अधिकतर शिल्पकार जातियां आती हैं जो अन्य पिछड़े वर्ग में समाहित हैं। फिर आते है अरज़ाल रजील जिसमें अधिकतर साफ सफाई का काम करने वाली जातियां हैं और जो हिंदू दलित जातियों के समकक्ष हैं।
सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया के मुस्लिम समाज में ऊंच-नीच किसी ना किसी रूप में प्रचलित है। जैसे मुस्लिम देश तुर्की में काली पगड़ी केवल सैयद ही बांध सकता है। भारत में भी ऐसा देखने को मिलता है।
अक्सर भारतीय राजनीति में हिंदू जातिवाद की बात तो होती है लेकिन मुस्लिम जातिवाद की बात नहीं होती है। अभी भारत के बिहार राज्य में जब भी जातिगत जनगणना की जिक्र विपक्ष पार्टी करती है तो मुस्लिम को दरकिनार कर देती है।
जबकि एक सरकारी आंकड़ों के मुताबिक अल्पसंख्यक और मुस्लिम नाम पर पसमांदा की सभी हिस्सेदारी अशराफ की झोली में चली जाती है, जबकि पसमांदा की आबादी कुल मुस्लिम आबादी का 90% है।
भारत में बने जातिवाद को खत्म करने के लिए प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग जिसे काका कालेलकर आयोग भी कहा जाता है। साथ ही मंडल आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग और सच्चर समिति तक ने मुस्लिम समाज के भीतर जातिगत विभेद को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है। लेकिन जमीनी हकीकत आज भी कुछ और है।
वरिष्ठ पत्रकार फैयाज अहमद फैजी बताते हैं कि, " ब्राह्मण और राजपूत की तरह अशराफ हमेशा मुस्लिम एकता का राग अलापता है। वह यह जनता है कि जब भी मुस्लिम एकता बनेगी तो अशराफ ही उसका लीडर बनेगा।"