जन्मदिन विशेष: एक पत्रकार जो दंगा रोकने निकला था और दंगा ने मार डाला
हिंदू-मुस्लिम राजपूत ब्राह्मण की लड़ाई आज की नहीं है। पूर्वजों का दिया हुआ नफरत है जो आज भी पल रहा है। इसी नफरत को मिटाने गया एक पत्रकार को नफरत के भीड़ ने कुचल कर मार डाला था नाम था गणेश शंकर विद्यार्थी।
भारत में हिंदू मुस्लिम का खेल बंगाल विभाजन के बाद से शुरू हुआ फिर 1920 आते-आते मामला और भी बढ़ने लगा देशभर में सांप्रदायिक हिंसा हुआ।
1931 का वक्त था। यूपी खासकर कानपुर में दंगे हो रहे थे। शहर में हो रहे दंगे को रोकने के लिए गणेश शंकर विद्यार्थी निकल पड़े। लोगों को मजहबी लड़ाई से नुकसान बताया। नुकसान बताते बताते वह एक ऐसी भीड़ के सामने फंस गए जिसने उन्हें कुचल डाला। हालांकि शहर में कई जगह दंगा करवाने में वह सफल भी हुए।
बाद में पता चला कि दंगाई उन्हें पहचानते ही नहीं थी। जब गणेश शंकर विद्यार्थी की बहुत खोज हुई। तब उनकी लाश एक अस्पताल की लाशों के ढेर में पड़ी हुई मिली। दंगाई के भीड़ में मारा गया एक पत्रकार का शरीर तो मर गया लेकिन पत्रकारिता जिंदा रही।
गणेश शंकर विद्यार्थी देश में अपने प्रताप प्रतिका से पहचाने गए। प्रताप" किसानों और मजदूरों का हिमायती पत्र रहा।
7 वर्ष बाद 1920 ई. में विद्यार्थी जी ने उसे दैनिक कर दिया और "प्रभा" नाम की एक साहित्यिक तथा राजनीतिक मासिक पत्रिका भी अपने प्रेस से निकाली।
अपने जेल जीवन में इन्होंने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों, "ला मिजरेबिल्स" तथा "नाइंटी थ्री" का अनुवाद किया। साथ ही हिंदी साहित्य सम्मलेन के 19 वें (गोरखपुर) अधिवेशन के ये सभापति चुने गए।