जयंती विशेष: गांधी के हत्यारों को राजनीतिक मान्यता दिला गांधीवादी बन गये जेपी
जयप्रकाश नारायण: कुमौद सिंह लिखती हैं कि जेपी के अंदर केवल सिद्धांत था। व्यावहारिक वो जीवन में कभी नहीं हुए। जेपी ने कभी संसदीय व्यवस्था में विश्वास नहीं किया। वो न कभी किसी सदन के सदस्य बने, न कभी कोई जिम्मेदारी उठायी। माउंटबेटन ने अपने एक पत्र में लिखा है कि भारत की आजादी में इसलिए भी अब देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि जेपी जैसे हिंसावादी लोगों की ताकत बढ़ रही है. वो नेहरू से युवा है और उनके ताकतवर होने से समस्याएं और बढ़ जायेंगी।
जिस संविधान को बचाने के लिए जेपी ने उदंडों का नेतृत्व किया, उस संविधानसभा में भी शामिल होने से उन्होंने इनकार कर दिया था। नेहरू और गांधी दोनों चाहते थे कि जेपी संविधानसभा के सदस्य बने, लेकिन जेपी उस जिम्मेदारी से भी भाग गये। इतना ही नहीं आजादी के बाद नेहरू ने उन्हें कैबिनेट में बुलाया, वो नहीं गये। जेपी इतने अराजक थे कि जिम्मेदारी वो किसी पद की लेना नहीं चाहते थे।
जैसे जैसे जेपी की उम्र बदली उनके विचार भी बदले, लेकिन उनके अंदर का हिंसाप्रेम कभी खत्म नहीं हुआ। नेहरू युग में वो हिंसावादी से समाजवादी हो गये। लेकिन सवाल उठता है कि जेपी गांधीवादी क्यों बने।
1974 तक जनसंघ राजनीतिक रूप से भारतीय राजनीति में अलग-थलग था। एक आम सोच थी कि गांधी की हत्या करनेवालों की यह पार्टी है। आरएसएस और हिंदू महासभा की छाप जनसंघ पर देखी जाती थी। गैर कांग्रेसी पार्टियों को भी जनसंघ का नाथू के प्रति स्नेह अपने साथ रखने की इजाजत नहीं देता था।
ऐसे में आरएसएस को एक बड़े सैलाव की जरुरत थी, जिसमें सभी मान्यताएं बह जाये। जेपी के अंदर की हिंसा का आरएसएस ने यहां इस्तेमाल किया। आरएसएस ने छात्रों के आंदोलन को गुजरात में शुरू कर बिहार तक लाने का काम किया। जेपी को नायक के तौर पर खड़ा किया। पूरी प्लानिंग के साथ एक माहौल गढ़ा गया। संपूर्ण क्रांति दरअसल गांधी के हत्यारों का समाजवादियों से विलय का आंदोलन था।
इसके लिए जेपी हायर किये गये थे। जेपी ने समाजवादियों को लामबंद किया और जनसंघ तो पहले से ही तैयार बैठा था कि वो अपना नाम और निशान खत्म कर लेगा। आजाद भारत में पहली बार गांधी के हत्यारों को राजनीति की मुख्यधारा में लाने का काम जेपी ने सफलतापूर्वक कर दिया। सावरकार और नाथू राम गोडसे को चाहनेवाले लोहिया के साथियों के साथ जनता पार्टी के मंच पर बैठ गये।
गांधी हत्या को गांधी बध कहनेवाले आरएसएस के लोग समाजवादियों के घर आने-जाने लगे। समाज में गांधी की हत्या को लेकर जो एक अछूतपन था, वो खत्म होने लगा। जेपी जानते थे कि गांधी की नाथू ने नहीं उन्होंने की है। नाथू तो केवल उनके शरीर को मारा था, गांधी के विचार को तो अब घर घर जाकर अब समाजवादी मारेंगे। इसलिए जेपी का गांधीवादी होना जरूरी था।
उनपर कोई शक न करें। उनपर कोई आरोप न लगाये। उनसे कोई सवाल न करें। इसलिए वो किसी दूसरे गांधीवादी से भी ज्यादा, मुखर और प्रभावी गांधीवादी बन गये। नहीं बने तो बना दिये गये। सच यही है बाकी परसेप्शन क्रियेट करने में मराठाियों का लोहा तो दुनिया मानती है