इतिहास से परिचय: जब रूस जापान की मदद से चीन को अलग-थलग करना चाहता था
1938 की बात है। चीन गृहयुद्ध की चपेट में था और जापानी आक्रमणकारी मंचूरिया पर कब्ज़ा जमा चुके थे। चीन की कुओमिनतंग पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के आपसी झगड़े ने विकराल रूप ले लिया था। उस वक़्त कम्युनिस्ट नेता माओ से-तुंग पहले राष्ट्रवादी नेता चेंग काइ-शेक को हटा कर जापानी सेना पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते थे।
लेकिन सोवियत संघ के नेता जोसफ स्टालिन की एक चिट्ठी ने उन्हें रोक दिया। स्टालिन ने लिखा कि स्थितियां अभी उनके प्रतिकूल हैं और आपसी झगड़े में चीन का नुकसान नहीं होना चाहिए। बेहतर यही होगा कि वो कुओमिनतंग से समझौता कर जापानियों को पहले चीन से बाहर करें और फिर सत्ता हासिल करने के बारे में सोचें।
माओ मान गए। और 1942 तक जापानियों से जंग में अपने चिर प्रतिद्वंद्वी की सहायता करते रहे। ये एक सधा हुआ राजनैतिक कदम था। जिससे चीन संयुक्त रूप से सामंतवादी जापान से सफलतापूर्वक लड़ सका। चीन की सेना जंग में बुरी तरह थक चुकी थी। अब चीनी सेना को हराना चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के लिए बेहद आसान हो गया।
माओ स्टालिन की नीतियों से बेहद प्रभावित थे। लेकिन जब स्टालिन की 1953 में मृत्यु हुई तब सोवियत संघ खुद को आंतरिक और वैश्विक रूप से घिरा हुआ महसूस करने लगा। शीत युद्ध की हवाएं अब उसके प्रतिकूल बहने लगी। ऐसे में सोवियत नेता निकिता खुश्चेव ने कमान संभाली।
उनके साथ सोवियत संघ ने एक ऐतिहासिक करवट ली। खुश्चेव ने स्तालिनवादी नीतियों से सोवियत यूनियन को बाहर निकालने की ठान ली। उनका मानना था कि व्यक्ति पूजन से विश्व साम्यवाद की स्थापना कभी नहीं हो पाएगी, जो कि सोवियत संघ का अंतिम लक्ष्य था। यहाँ तक कि 1938 के ग्रेट पर्ज में मौत के घाट उतारे गए तमाम स्टालिन विरोधी नेताओं की निर्मम मृत्यु का खंडन किया गया और जिंदा बचे नेताओ को आज़ाद किया गया।
माओ सोवियत संघ के इन कदमों को एक संशोधनवादी रवैया मानते थे। जहाँ खुश्चेव शीत युद्ध की यथास्थिति को ज़्यादा से ज्यादा समय तक बनाये रखना चाहते थे। माओ 1956 से 1960 तक पूंजीवादी व्यवस्थाओं पर सीधे हमले की वकालत करते रहे। माओ का मानना था कि सोवियत संघ अंतराष्ट्रीय स्तर पर चीन को अलग-थलग करने की कोशिश कर रहा था।
खुश्चेव के रवैये से व्यथित माओ दुनिया की अलग अलग वामपंथी दलों में फूट डालकर उन्हें सोवियत संघ की खिलाफत करने को उकसाते रहे। माओ नीति से नहीं, सीधी लड़ाई से चीन के हितों को साधते रहे। सभी तत्कालीन समाजवादी नेताओं को माओ और साम्यवाद का दुश्मन बताया जाने लगा। चाहे वो युगोस्लाविया के टीटो हो, अल्बानिया के इंवेर होकचा हो या मिस्र के नासेर। 1962 के भारत-चीन युद्ध में खुश्चेव बार बार चीन को इस जंगी पागलपन से बाहर आकर भारत से बात करने को कहते रहे पर चीन ने उनकी एक न सुनी।
चीन अब सोवियत संघ के प्रत्यक्ष रूप से विरुद्ध हो चुका था। 1991 में सोवियत संघ के पतन के बाद चीन ने कभी अपने इस काले अध्याय को मुड़कर नहीं देखा। आज चीन एक परमाणु शक्ति है और ये उसकी जिम्मेदारी है कि वो इतिहास से कुछ सीखे। भारत को भी अपने प्रतिद्वंद्वी का चरित्र समझने की ज़रूरत है। आज पूरी दुनिया चीन के स्व-हित साधने के तरीकों को वैश्विक पटल पर अलग अलग ढंग से अपना रहा है लेकिन इससे हम जा कहाँ रहे हैं ? बहुत कम लोग ये सवाल पूछ रहे हैं…!